प्रेमचंद ने एक बार लिखा था कि गाँव का रास्ता, बच्चों की आँख की तरह शाम होते ही बंद हो जाया करता था... आज आपने लिख दिया कि बड़ों की आँखें मुँह अंधेरे खुल जाया करती है… सबसे पहले तो या ऑब्ज़र्वेशन मुझे बहुत पसंद आई… और जो कारण आपने बताया वो पढकर दंग रह गया मैं... एक बार पुनः आपकी कल्पनाशीलता के लिए आपको नमन..अद्भुत्!!
जीवन की संध्या-वेला में गुजरे दिनों की सुनहरी यादें वस्तुत: वटवृक्ष सदृश घनी छाँव ही तो है; जो न केवल हमें अपनी जड़ों की याद दिलाती हैं, बल्कि भावी पीढ़ी को सुरक्षा कवच भी प्रदान करती हैं । बेजोड़ अभिव्यक्ति ।
चार लाईने औऱ जीवन दर्शन का एक नया पाठ। ये चार लाईन पढ़ते ही एक बात याद आ गई.....मुंह अंधेरे उठने का काफी पुराना दर्शन।
जब मैं छोटा था शायद तीसरी या चौथी कक्षा में, (1980-81) तब मेरी कक्षा में पढ़ने वाले एक बच्चे ने एक दिन कहा कि उसके दादा जी रात को नो बजे हर हाल में सो जाते हैं औऱ सुबह तीन बजे उठ जाते हैं। फिर दूध लेने के लिए निकल जाते हैं औऱ सुबह सैर के साथ दूध लेकर घर जल्द आ जाते हैं। उस समय में सोचता कि कितने बदतमीज लोग हैं ये, जो बुजुर्ग दादाजी को दूध लाने को भेज देते हैं वो भी रात में ही। दरअसल मेरे पिताजी पत्रकार रहे हैं, इसलिए रात 12 बजे के आसपास आते और सुबह देर तक सोते थे।(आज यही दिनचर्या हमारी है) जिस कारण शाम को हम दूध लाने जैसे काम हमारे जिम्मे होते थे यानि छोटे बच्चों के। कभी छुट्टी वाले मुंह अंधेरे लंबी लाइने लगते थे और बुजुर्गों को देखकर हम सोचते कैसे घटिया हैं इनके बच्चे वगैरह...पर बाद में कुछ बड़े होने पर हमें पता चला की हर बुजुर्ग के साथ ऐसा नहीं था..दरअसल उस समय के लोगो की दिनचर्या यही थी। जल्दी सोना औऱ जल्दी उठना। यही उनके स्वस्थ जीवन का राज भी था। कितनी सही थी उन लोगो की बातें। हम आज काम के बदलते घंटो औऱ शिफ्टों के कारण नियमित जीवन जी नहीं पाते, ठीक से सो पाते। पर देखा जाए तो इसकी आड़ में हमने स्वास्थय को नजरअंदाज भी करते हैं। अगर हम ध्यान रखें तो शायद हम आज भी काफी स्वस्थ्य रह सकते हैं।...
देखिए आपकी चंद लाइनों ने कितनी महत्वपूर्ण बात याद दिला दी...लिखा आपने कुछ औऱ उसमें से कितनी नयी बातें निकल आईं...यही तो है चंद लाइनों का जादू। चंद लाइने.....गहरी बातें......
34 comments:
sayad aisa nahi hai..........:)
waise aapke baato me kuchh to satyata najar aa rahi hai, pahle maine aisa socha hi nahi tha.......:)
aapne hamare blog pe aana chhod kyon diya...........:)
bahut ho khhobsurat baat kahi hai..
shayad yahi koi abhilasha ho..
आप जीवन को उसकी विस्तृति में बूझने का यत्न करने वाली कवयित्री हैं ।
गहरी बात...
Yes......is rachna ko thoda dl se sochna pada.!
very nice.
www.ravirajbhar.blogspot.com
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
bahut khoob
सुन्दर प्रस्तुति
गिने चुने शब्दों में इतनी बड़ी सोच जाहिर कर दी है आपने।
एक अधूरी सी गज़ल ’कृष्ण अदीब’ की छापी है, http://mosamkaun.blogspot.com/2010/07/blog-post_28.html पर, आपने कहा था सूचित करने के लिये सो लिख रहा हूं।
आभारी।
bahut hi achcha prastutikaran.abhi mhjhe aapse bahut kuchch seekhana hai.
apne blog par aapko dekhkar mujhe atyant khushi hoti hai.
poonam
गहरी बात.अच्छी अभिव्यक्ति
प्रेमचंद ने एक बार लिखा था कि गाँव का रास्ता, बच्चों की आँख की तरह शाम होते ही बंद हो जाया करता था... आज आपने लिख दिया कि बड़ों की आँखें मुँह अंधेरे खुल जाया करती है… सबसे पहले तो या ऑब्ज़र्वेशन मुझे बहुत पसंद आई… और जो कारण आपने बताया वो पढकर दंग रह गया मैं... एक बार पुनः आपकी कल्पनाशीलता के लिए आपको नमन..अद्भुत्!!
आप लिखती तो है दो चार ही लाइने, लेकिन उनकी धार तो तलवार की धार से भी ज्यादा पैनी होती है
सुंदर अभिव्यक्ति
जीवन मे एक और लम्बे
दिन की तलाश तो इसका कारण नहीं ताकि
गुजरे सुनहरे लम्हों को समेट बटोर
इसकी छाँव मे वे फिर खुल कर जी सके ।
जीवन की संध्या-वेला में गुजरे दिनों की सुनहरी यादें वस्तुत: वटवृक्ष सदृश घनी छाँव ही तो है; जो न केवल हमें अपनी जड़ों की याद दिलाती हैं, बल्कि भावी पीढ़ी को सुरक्षा कवच भी प्रदान करती हैं । बेजोड़ अभिव्यक्ति ।
बुजुर्गों को अधिक दायित्वबोध रहता है, सदैव की भाँति। आजकल हम भी सुबह उठ रहे हैं।
हमसे ई छूट कईसे गया... लगता है उमर असर करने लगा है..अब आप्के कहे अनुसार सुबह उठना होगा..ताकि सचमुच जीबन जीने का अबसर मिले अऊर जादा!
bahut sahi lagi ye baate .
aapki naati kaise hain..
नींद तो आती नही, फिर क्यूं न उठें एक नये दिन का स्वागत करें । शायद आपकी बात ही सही है ।
चार लाईने औऱ जीवन दर्शन का एक नया पाठ। ये चार लाईन पढ़ते ही एक बात याद आ गई.....मुंह अंधेरे उठने का काफी पुराना दर्शन।
जब मैं छोटा था शायद तीसरी या चौथी कक्षा में, (1980-81) तब मेरी कक्षा में पढ़ने वाले एक बच्चे ने एक दिन कहा कि उसके दादा जी रात को नो बजे हर हाल में सो जाते हैं औऱ सुबह तीन बजे उठ जाते हैं। फिर दूध लेने के लिए निकल जाते हैं औऱ सुबह सैर के साथ दूध लेकर घर जल्द आ जाते हैं। उस समय में सोचता कि कितने बदतमीज लोग हैं ये, जो बुजुर्ग दादाजी को दूध लाने को भेज देते हैं वो भी रात में ही। दरअसल मेरे पिताजी पत्रकार रहे हैं, इसलिए रात 12 बजे के आसपास आते और सुबह देर तक सोते थे।(आज यही दिनचर्या हमारी है) जिस कारण शाम को हम दूध लाने जैसे काम हमारे जिम्मे होते थे यानि छोटे बच्चों के। कभी छुट्टी वाले मुंह अंधेरे लंबी लाइने लगते थे और बुजुर्गों को देखकर हम सोचते कैसे घटिया हैं इनके बच्चे वगैरह...पर बाद में कुछ बड़े होने पर हमें पता चला की हर बुजुर्ग के साथ ऐसा नहीं था..दरअसल उस समय के लोगो की दिनचर्या यही थी। जल्दी सोना औऱ जल्दी उठना। यही उनके स्वस्थ जीवन का राज भी था। कितनी सही थी उन लोगो की बातें। हम आज काम के बदलते घंटो औऱ शिफ्टों के कारण नियमित जीवन जी नहीं पाते, ठीक से सो पाते। पर देखा जाए तो इसकी आड़ में हमने स्वास्थय को नजरअंदाज भी करते हैं। अगर हम ध्यान रखें तो शायद हम आज भी काफी स्वस्थ्य रह सकते हैं।...
देखिए आपकी चंद लाइनों ने कितनी महत्वपूर्ण बात याद दिला दी...लिखा आपने कुछ औऱ उसमें से कितनी नयी बातें निकल आईं...यही तो है चंद लाइनों का जादू। चंद लाइने.....गहरी बातें......
सटीक और गहरी बात ,अच्छी रचना ।
आप मेरे ब्लाग पर आईं ,सुझाव दिया ,अच्छा लगा । परिवर्तन कर दिया है । आगे भी हमारे ब्लाग पर आती रहें ,निवेदन है ।
बहुत सुन्दर क़े साथ-साथ कबिता में गहराई है
धन्यवाद.
bahot sunder.
nice post.
बहुत ही गहरे भाव के साथ सुन्दर रचना लिखा है आपने जो बेहद पसंद आया!
मित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
ऐसी सघन अनुभूति जीवन के व्यापक अनुभव से ही आती है! प्रशंसनीय !! धन्यवाद !!!
बहुत बढ़िया || गहरे भाव !!!
wah ji wah kya baat hai!
wonderful
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गहन!
सादर प्रणाम!
gujre dino ko smet lene ki chah....badhi masoom si chah hai..kash!
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