Monday, February 18, 2013

तनहा

जब भी पाती हूँ
अपने को तनहा
जाने कैसे खबर
पा जाते है वो
मुरझाए  टूटे
 बिखरे  -बिखरे
जर्जर  से
घायल  ख्वाब


मेरे पास  खिचे
चले आते है
फ़ौरन बिना कोई
 दस्तख दिए
जैसे कि
 पनाह लेने
और  मै
 सब  भुला


 इनकी तीमारदारी में
 इनको सजाने
संवारने में
हो जाती हूँ
इतनी मशगूल कि
 समय के  गुजरने का
एहसास ही
कंहा हो पाता है