Sunday, May 30, 2010

कुंठा

जब मानव अपने

स्वयं के बनाए

कुंठाओं के जाल मे

बुरा फंस जाता है ।

आत्म विश्वास तो

फिर खोता ही है

व्यक्तित्व भी उसका

उभर नहीं पाता है ।

22 comments:

दिलीप said...

satya vachan...

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर विचार!

दिगम्बर नासवा said...

सही कहा है .. इसलिए कहते हैं कुंठा निकाल देनी चाहिए मन से .........

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जीवन के सत्य को दर्शाती अच्छी रचना....

सम्वेदना के स्वर said...

कुण्ठाएँ वैसे भी घुन की तरह होती हैं.. जो मानस को खोखला कर देती हैं…

Saumya said...

sach likha hai aapne...

अंजना said...

अच्छी रचना...

sm said...

this is the truth of life

रचना दीक्षित said...

बहुत अच्छी रचना

Parul kanani said...

bahut sahi keha..

मुकेश कुमार सिन्हा said...

amal karne layak baat.......:)
kuntha ko durr bhagao..........

मुकेश कुमार सिन्हा said...

mera blog wait kar raha hai.......:D

स्वप्न मञ्जूषा said...

bahut acche vichaar..!

Yatish said...

कम शब्दों मे बहुत कुछ कह देना आपकी खूबी है जो बहुत कम लोगों मे होती है.

कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

रोज न जाने केतना लोग कुंठा से घबरा कर आत्महत्या तक कर लेता है... आपके ई कबिता को अगर मन में बईठा लिया त एगो नया सबेरा अपने आप देखाई देने लगेगा... बहुत प्रेरक!!

Dr.R.Ramkumar said...

kuntha par achcha darshan hai..

मनोज भारती said...

कुंठा पर आपके विचार सशक्त हैं ।

अरुणेश मिश्र said...

व्यक्तित्व भी उसका धराशायी हो जाता है ।

सत्य कथन ।

ज्योति सिंह said...

आत्म विश्वास तो

फिर खोता ही है
bilkul satya aur sundar

स्वप्निल तिवारी said...

sahi baat

राजेश उत्‍साही said...

आपके ब्‍लाग पर आकर सचमुच अपनापन लगा। आपकी छोटी छोटी कविताएं गागर में सागर के समान हैं।

gazalkbahane said...

कुंठा
अच्छा लिखा एक अन्दाज यह भी देखें
छोड़ो-मन
कुंठाओं को
और सो जाओ

माना
तुम्हारे पास
कहने को बहुत कुछ है
पर
किससे कहोगे?

उन
कानो से
जिन्होने कब से
तुम्हारी बातों पर
कान धरना छोड़ दिया है

उस
दिल से
किस दिल की
बात कर रहे हो तुम
जिस दिल से
बेदखल हुए
एक जमाना बीत गया है......
पूरी कविता http://katha-kavita.blogspot.com/ पर देखें