Wednesday, April 14, 2010

दम्भ

जब दम्भ को
आप मन के
द्वार से ही
स्वयं सयत्न
खदेड़ बाहर
निकाले ।
ताक मे जैसे
बैठे हो रिश्ते
तुरंत आकर
वापस यंहा
अपना वो
घर बसाले ।

Sunday, April 11, 2010

दर्पण

मेरी रचित कविताए
मेरी सोच का है दर्पण
जो अनुभवों ने सिखाया
किया है वो ही अर्पण ।

अपना पूरा जीवन जिसने अपनी घर गृहस्थी को दिया वो एक आम नारी हूँ मै । जो संस्कार मुझे मिले उन्ही की छाया मे अपनी बेटियों की परवरिश की । मेरी दो बेटियाँ अब अपनी गृहस्थी मे व्यस्त है ।एक समय ऐसा था दिन हाथ से फिसल जाते थे तब बच्चे छोटे थे । जीवन की सार्थकता इसी मे है कि हर समय को भरपूर जीना चाहिए । बस ये ही मैंने किया ।
बड़ी बेटी के प्रोत्साहन से ही मै आप लोगो के बीच आई । उसे पूरा विश्वास था कि एक वार लिखना शुरू करूंगी तो लिख ही लूंगी । मेरा नाम सरिता है और मेरे घर का नाम असल मे अपनत्व है जो मैंने अपने ब्लॉग को भी दिया है ।
सादगी , सच्चाई , सय्यम और स्वावलम्बन जिन्दगी को संवार देते है ऐसा मेरा अनुभव है ।
पड़ने का शौक बचपन से था और लिखने का अब इस बासठ साल की उम्र मे पाला है ।
आप
लोगो का जो स्नेह मिला उसकी मै बहुत आभारी हूँ । अब तो लगता है परिवार फिर से बड़ गया है ।
आज इस शतक के साथ ..................
सरिता

Friday, April 9, 2010

मुद्दे

कई वार मुद्दे
स्वयं उठते है
कभी ज़बरन
उठाए जाते है ।
फलस्वरूप एक
आम आदमी
भौचक्का सा
दर्शक ही बन
रह जाता है ।
स्वार्थी तत्व
गरमागरमी का
माहौल पैदा कर
इसकी थाप पर
तांडव नृत्य
कर जाते है ।
मुद्दे ना सुलझते है
ना सुलझाए
ही जाते है ।
और असली और वो
ज़बरन उठाए मुद्दे
भविष्य की आस पर
और कोई उपाय ना पा
थक हार सो जाते है

Monday, April 5, 2010

नदी के दिल से (१)

रवि का ताप
और हिम पर्वत का
इसे ना सह पाना
निरंतर तप कर
पिघल कर बहना
जल का रूप ले गया
और मुझे जन्म दे गया ।
बरसात व नहरों ने मुझे
अपना दिया भरपूर साथ
मेरा अस्तित्व नहीं
बना ऐसे ही अकस्मात ।
घनघोर घटाओं से
है मुझे असीम प्यार
ये बरस रखती है
मेरा अस्तित्व बरकरार ।
राह मे कई चट्टानें
वाधा बनकर है आती
पर ये आगे बढने से
मुझे रोक नहीं पाती ।
निरंतर तेज़ बहना अब
बन गया मेरा स्वभाव
हतप्रभ है सभी देख कर
मेरा धारा प्रवाह ।
खेतों का लहलहाना
मुझे बहुत भाता है
प्यासे को तृप्त करना
भी मुझे खूब आता है ।
अफ़सोस है कि
कभी -कभी मेरे
कोप से गाँव हो
जाते है ग्रसित ।
बांध सकते है मुझे
ये ही सोच कर
देती है सबको भ्रमित ।
प्रकृति से ना कभी
करिये कोई खेल
मानव का नहीं इससे
कोसों तक कोई मेल ।
शैल पुत्री से टकराना
यानिं चूर चूर हो जाना ।
या ये कहू कि......... (कहावत है )
अपने मुख की खाना ।

Friday, April 2, 2010

निकाहनामा

दो दिन से हर टी वी चैनेल पर
शोर गया है मच
आयशा का ये निकाहनामा
झूठ है या सच ?

आज ये बात समझ मे
पूरी तरह से है आई ।
बुजुर्गो ने कान पक गए
ये कहावत क्यों बनाई ।

तिल का ताड़ करना
कोई इनसे सीखे ।
ना बाबा ना ये कला
सीख आप क्या कीजे ?

Thursday, April 1, 2010

आशा किरण

तड़पते
तरसते
कुम्हलाते
मुरझाते
घुटते
रिसते
घायल
पीड़ित
अंधकार
मे डूबे
दिल को ।
रोशनी
हौसला
जीवनदान
दे जाती है
एक छोटी
नन्ही सी
आशा किरण ।

Friday, March 26, 2010

उमंग

उमंग का हो साथ
तो लम्बा सफ़र भी
कैसे कटता है हमारा
पता ही नहीं चले ।

कोई भी मुश्किल
टिक नहीं पाती
जोश जो पलता है
इसकी छाँव तले ।

Monday, March 22, 2010

माटी

सुनामी , भूकंप
दुर्घटना , हादसे
सूखा , महंगाई ।
आम आदमी पर
विपदा चारों ओर
से हे घिर आई ।
इन्हीसे तो जुड़ी है
दुःख और वेदनाए ।
कोई आखिर जाए तो
अब किधर जाए ।
व्यथित लोगो के
अविरल बहते आँसू
मेरे दिल को पूरा
भिगोए रखते है
रिश्तों की गर्माहट
और मेरे तपते जज्वात
भी दिल की माटी को
सूखा नहीं रख पाते है ।
शायद इसी लिये
मेरा दिल अपने लिये
और सबके लिये
मात्र धड़कता है ।
कभी टूटता नहीं
तडकता नहीं
गीली माटी का
जो बना है
गीली माटी से
ही ये सना है
ये तो बस जुड़ना
और जोड़ना
जानता है
हर एक दुःख को
अपना मानता है

Thursday, March 18, 2010

बुत

दलितों का हो उत्थान
उन्हें भी मिले पूरा सम्मान
ये ही थी संविधान की कोशिश
ये ही थी गांधीजी की ख्वाहिश ।

अब समय ने ली है करवट
परिस्थितियाँ भी बदली है
साफ़ सुथरी नीति की जगह अब
दल बदल ने जगह ले ली है ।

अब हर क्षेत्र मे मिलता है
आरक्षण का बोल बाला
और चारों ओर हम देखते है
बस घौटाला ही घौटाला ।

नैतिकता को रख
ताक़ , दलित नेता
दौलत प्रदर्शन से
क्यों कर घबराए ?

लक्ष्मी जी की तो
असीम कृपा है उन पर
असामाजिक तत्व भी
पूरा साथ निभाए ।

दलित भी बुत बने
सब कुछ है देख रहे
उनके दलित नेता के
बुत जो है बन रहे ।

Friday, March 12, 2010

जालसाज़

जालसाजी भी एक अच्छा
खासा धंधा बन गयी है
बीमारी की तरह अब ये
चारो और फ़ैल गयी है ।

झांसा देने वाले लोग तो
होते है बड़े ही शातिर
आम आदमी शिकार बनता
लालच , अज्ञान के खातिर ।

खुदा की नज़रे भी
क्यों नहीं पड़ती इन पर ?
कंहा पहुचेंगे ये ऐसी
भटकी राह पर चलकर ?

इंसान ना साथ कुछ लाया है
ना ही साथ ले जाता है ।
ये साधारण सी बात भी क्या
जालसाज़ समझ नहीं पाता है ?