Sunday, August 15, 2010

आओ सींखे ( पुरानी कविता )

चट्टानों से टकरा कर भी
खिलखिलाना कोई लहरों से सीखे ।
हजारो राज़ अपने मे सहेज रखना
ये कला कोई सागर से सीखे ।

काँटों से घिरे रह कर भी
मुस्काना कोई गुलाब से सीखे ।
क्षमता से अधिक श्रम करने की
लगन कोई चींटी से सीखे ।

कुछ सीखना है तो प्रकृति
के पास शिक्षको की कमी नही ।
नि शुल्क सीखने की सुविधा
किसीको मिलेगी क्या कंही ?

Wednesday, August 4, 2010

लोक गीत ( राजस्थान के आँचल से )

म्हारी जनम जाटनी घर आई (जाट )
देख रे बलम म्हारी चतुराई ( जाटनी )
जाट ....
आ तो दौड़ी दौड़ी अजी दौड़ी दौड़ी
कन्दोइया क हाली है जी
कन्दोइया हाली
आप र तो लाडू बलम र सेंवा
छोकरा न जलेबी दिलाय लाई ।
म्हारी जनम जाटनी घर आई .............
जाटनी ..........
देख रे बलम म्हारी चतुराई ................

जाट .......
आ तो दौड़ी दौड़ी , अजी दौड़ी दौड़ी
कुम्हारा क हाली है जी कुम्हारा क हाली
आप र तो मटकों बलम र चाडो
अर छोकरा न घुड्ल्यो दिला लाई ।
म्हारी जनम जाटनी घर आई ..............
जाटनी ......
देख रे बलम म्हारी चतुराई .............

जाट .........
तो दौड़ी दौड़ी , अजी दौड़ी दौड़ी
कचहरी म चाली है जी कचहरी चाली
आप र तो माफ़ी बलम र फ़ासी
छोकरा को खोपड़ो फुडाय लाई ।
म्हारी जनम जाटनी घर आई ..............
जाटनी .......
देख रे बलम म्हारी चतुराई .............

इस गीत से नागौर मेरे जन्मस्थल की बहुत सी यादे जुडी है । मै आठ साल की रही होंगी जब जाट का किरदार रंगमंच पर निभाया होगा........याद आ रहा है नृत्य-नाटिका के बीच मे मेरी मूंछो पर ताव देते समय उनका हाथ मे आजाना और सब कुछ भूल पहिले उन्हें ठीक से चिपकाना...........बचपन के दिन भी क्या दिन थे............आज पचपन साल बाद भी कल की सी बात लग रही है.........

ये पोस्ट सतिशजी को dedicate कर रही हूँ ............
उनकी आज की पोस्ट से ही प्रेरणा पा ये दिन लौटा है......सारे शव्द उमड़ कर चले आए अतीत के साये से वर्तमान को धनी बनाने ।


इस लोक गीत से एक बात और स्पष्ट होती है कि ये भ्रम ही है कि नारी अबला है दबा दबा सा व्यक्तित्व ही उसका जीवन है।
यंहा जाट पति शिकायत तो कर रहा है पर बड़े ही नाज़ से ..........अपनी पत्नी पर गर्वित होते हुए ............और उसे छेड भी रहा है। बच्चे को उससे ज्यादा तवज्जु देने पर

कंदोई ... हलवाई
कुम्हार ... पोटर
कचहरी .... कोर्ट
खोपड़ो ....सिर